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Sunday, June 21, 2009

नायक या खलनायक?????






हमारे समाज में फिल्में और उनसे जुड़े हुए लोगों को असलियत की ज़िन्दगी में भी किसी " हीरो " से कम नही समझा जाता, ये लोग जो भी करते हैं, आम आदमी इनका अनुसरण करता है। बिना सोचे समझे की जो वो सिनेमा हॉल में देखते हैं, वो एक तीन घंटे की फ़िल्म से ज्यादा और कुछ नही है, आम आदमी की इसी प्रशंशा के पात्र बनकर ये " प्रसिद्ध" लोग सफलता के नशे में इतने चूर हो जाते हैं की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी भूल जाते हैं। हमारे आस पास देखें तो ऐसे कई उदाहरन स्वत: ही मिल जायेंगे जिनमें आम आदमी के मौलिक अधिकारों का इन लोगों द्वारा हनन किया जाता है।

उदहारण अनेक हैं, चाहे वो ९७ का चिंकारा मर्डर केस हो या ९१ का मुंबई बोम्ब ब्लास्ट, चाहे वो एक नाबालिग़ लड़की का बलात्कार हो या किसी गरीब को कार के नीचे कुचल डालना। सब एक ही बात की तरफ़ इशारा करते हैं की हमारी कानून व्यवस्था इतनी लचर और घूसखोर है की इन लोगों के मन में उसका जरा भी डर नही है।

फिल्में और साहित्य सदा से ही हमारे समाज का एक प्रभावशाली अंग रहे हैं! और आम लोगोग्न के मन को और विचारधारा को प्रभावित करते रहे हैं, तो इन आम से खास बने लोगों को भी कुछ भी अनुचित करने से पहले अपने गिरेबान में झांकर देख लेना चाहिए ! कथनी और करनी का यही बड़ा अन्तर इन्हें प्रसिद्धि के उस सिंघासन से एक पल में उतार सकता है जिस पर बैठकर ये अपनी जिम्मेदारियां भूल जाते हैं!