Monday, November 23, 2009
" रात का इंतज़ार"
एक शाम मैं घर से निकलकर,
यूँ ही कुछ दूर चली..........
देखती हूँ रात चुपचाप है!
मैंने पूंछा क्या हुआ????
तुम तारों भरी स्वप्न सुंदरी.............
अपनी सुन्दरता के उत्कर्ष पर भी.....
बैठी हो मुरझाई सी,
जैसे कलि कोई कुम्हलाई सी!!
रात 'आह' भरकर बोली........
" मेरी सुन्दरता, ये तारों के गजरे,
जैसे फूल हैं बिन भंवरे,
मैं ख़ुद को ही बहलाती हूँ,
पलकों पर ख्वाब सजाती हूँ!!!
कोई जो मुझको निहारे,
बिखर जाते हैं मेरे गजरों के तारे !!!
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