"मेरे द्वारा लिखित यह साक्षात्कार १२थ सप्तम्बर २००६ को "दैनिक जागरण के " जागरण सिटी परिशिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था! यह मेरी पहली प्रकाशित रचना है!"
नाम - मनु त्रिखा
शिक्षा- ऍम कोम., हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
शैक्षणिक पृष्ठभूमि- प्रोफेशनल बी.कॉम। करने के बाद एक सब ब्रोकर से थेओरेतिकल अनाल्य्सिस में विशेषज्ञता की ट्रेनिंग ली। दो महीने का प्रशिक्षण लेकर पहली नौकरी " कर्वी स्टॉक में की! कम के दूसरे साल में ही शादी हो गयी! उस समय काम के बारे में यह तय नही था की करना है या नही पर ससुराल वालों के सहयोग व प्रोत्साहन से एक बार फ़िर काम करने का मौका मिला! पिछले छः महीने से " religare" में काम कर रही हैं, यह पूंछे जाने पर की ससुराल वालों से किस तरह का सहयोग मिलता है? वो बताती हैं - मेरी सास, देवर, ननद, पति सभी कामकाजी हैं या अपना व्यवसाय करे हैं इसलिए उन्होंने मुझे भी व्यस्त रहने की सलाह दी!
वह अपने मायके वालों का भी सहयोग मानती हैं जिन्होंने उन्हें उच्च शिक्षा दिलाकर इस काबिल बनाया की बह अपने पैरों पर खड़ी हो सकें! निजी और व्यावसायिक जीवा में संतुलन कैसे बनाती हैं? पूंछने पर वे कहती हैं - " फिलहाल तो यही सोचा है की जब तक काम करुँगी ऑफिस और घर के बीच संतुलन बनाने की हर सम्भव करुँगी
क्यूंकि नौकरी के साथ - साथ परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है! को दिक्कत नही आती? वह तपाक से जवाब देती हैं - परेशानी की बात ही नही होती यदि परिवार में हर सदस्य को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो!
महत्त्वपूर्ण विषयों पर फैसला लेने की बात आने पर वह कहती हैं - "आप एक परिवार में रहते हैं तो आप के द्वारा लिया गया हर निर्णय सीधे तौर पर पूरे परिवार को प्रभावित करता है! इसलिए कोई भी फ़ैसला लेने से पहले सबकी राय जान लेना बहुत आवश्यक है! " मनु के अनुसार वह अपने कम से पूरी तरह संतुष्ट हैं! भविष्य में उन्हें आने कैरियर को आगे ले जाने का अवसर मिले तो वे जरुर इसका लाभ उठाएंगी!
महिलाओं के लिए काम करना कितना जरूरी है? इस सवाल के जवाब में वो कहती हैं - मंहगाई के इस दौर में हर व्यक्ति को इतना तो कमाना ही चाहिए ताकि वो अपनी और वक्त आने अपर दोसरों की ज़िम्मेदारी ले सके! आर्थिक स्वतन्त्रता महिला को बुरे समय में भी संबल प्रदान करती है और समाज में सर उठा कर जीने लायक बनाती है!महिलाओं को इच्छित क्षेत्र में आगे आना चाहिए और वक्त के साथ ख़ुद को बदलते रहना चाहिए! उन्हें समाज कम एक जागरूक नागरिक बनना चाहिए!
Monday, June 22, 2009
Sunday, June 21, 2009
नायक या खलनायक?????
हमारे समाज में फिल्में और उनसे जुड़े हुए लोगों को असलियत की ज़िन्दगी में भी किसी " हीरो " से कम नही समझा जाता, ये लोग जो भी करते हैं, आम आदमी इनका अनुसरण करता है। बिना सोचे समझे की जो वो सिनेमा हॉल में देखते हैं, वो एक तीन घंटे की फ़िल्म से ज्यादा और कुछ नही है, आम आदमी की इसी प्रशंशा के पात्र बनकर ये " प्रसिद्ध" लोग सफलता के नशे में इतने चूर हो जाते हैं की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी भूल जाते हैं। हमारे आस पास देखें तो ऐसे कई उदाहरन स्वत: ही मिल जायेंगे जिनमें आम आदमी के मौलिक अधिकारों का इन लोगों द्वारा हनन किया जाता है।
उदहारण अनेक हैं, चाहे वो ९७ का चिंकारा मर्डर केस हो या ९१ का मुंबई बोम्ब ब्लास्ट, चाहे वो एक नाबालिग़ लड़की का बलात्कार हो या किसी गरीब को कार के नीचे कुचल डालना। सब एक ही बात की तरफ़ इशारा करते हैं की हमारी कानून व्यवस्था इतनी लचर और घूसखोर है की इन लोगों के मन में उसका जरा भी डर नही है।
फिल्में और साहित्य सदा से ही हमारे समाज का एक प्रभावशाली अंग रहे हैं! और आम लोगोग्न के मन को और विचारधारा को प्रभावित करते रहे हैं, तो इन आम से खास बने लोगों को भी कुछ भी अनुचित करने से पहले अपने गिरेबान में झांकर देख लेना चाहिए ! कथनी और करनी का यही बड़ा अन्तर इन्हें प्रसिद्धि के उस सिंघासन से एक पल में उतार सकता है जिस पर बैठकर ये अपनी जिम्मेदारियां भूल जाते हैं!
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